सरकार की तरफ से ऐसा कोई सकारात्मक प्रयास नहीं किया गया की प्रदर्शनकारियो से बात की जाए और उनकी मांगो पर गौर किया जाए। अगर दिल्ली की जनता ये चाहती है की सरकार उनकी सुरक्षा की समुचित व्यवस्था करे तो क्या ये मांग जायज़ नहीं है ? अगर महिलाए ये चाहती हैं की वो बेरोक टोक घर से बाहर आ जा सके क्या ये उनका अधिकार नहीं है ? अगर बलात्कार का शिकार हुयी महिला के अपराधियो को कड़ी से कड़ी सज़ा का प्रावधान करने की मांग सरकार से की जाती है तो क्या ऐसा करना जायज़ नहीं है ? इन सभी प्रश्नों का जवाब आखिर जनता चाहती है तो इसमे क्या बुराई है?
देश की जनता के सामने खुद को देश का युवा नेता होने का दंभ भरने वाले नेता कहा गए , क्यू नहीं उन्होने जनता के सामने आ कर उनका कष्ट जानने की कोशिश की , क्यू वो जनता के गुस्सा का सामना नहीं करना चाहते? इसलिए क्यूंकी इन सबके अंदर ये अहम भर गया है की ये तो देश के राजा हैं। जनता अगला चुनाव आते आते सब भूल जाएगी , लेकिन अब समय आ गया है की इनको इनके अहंकार का जवाब देने का। इनके खुद के नेता पुलिस को लाठी भाँजने का आदेश देते हैं और फिर कैमरे के सामने आकार पुलिस के मुखिया को बदलने की बाते करते हैं ताकि जनता पुलिस के इस कार्यवायी को भूल जाए।
इस आंदोलन का दमन करने के लिए दिल्ली पुलिस द्वारा जो किया गया उसकी जितनी भी निंदा की जाए वो कम है। पुलिस के आला अफ़सरान आगे आकार भीड़ से बात कर सकते थे और प्रदर्शनकारियो की बातों पर गौर कर सकते थे। पुलिस की कारवाई मे न सिर्फ आम जनता को घायल किया अपितु इस सम्पूर्ण आंदोलन का प्रसारण कर रहे मीडिया के लोगो और कैमरो को भी पूलिसिया कारवाई का निशाना बनाया गया। इस लाठी चार्ज की नृशंश कार्यवायी से पुलिस और सरकार दोनों ने आम जनता के बीच अपनी विश्वसनीयता को खोया ही है।