Friday, February 22, 2013

मुंबई से मेरा पहला साक्षात्कार पार्ट 2

दिल्ली से ट्रेन द्वारा मुंबई सेंट्रल पहुँचने और वहाँ से लोकल और रिक्शा का सफर कर के मित्र के आवास तक पहुँचने का व्याख्यान तो मैंने अंतिम पोस्ट के द्वारा बता ही दिया था। वहाँ पहुच कर मैंने सबसे पहले आरामदायक बिस्तर की ओर रुख किया और बिस्तर पर पड़ते ही नींद ने मुझे अपनी आँचल मे छिपा लिया। दोपहर मे नींद खुली तो स्नान भोजन वगैरा कर के सोचा की अब क्या किया जाये? साथ मे ही बैठे मित्र ने झट सुझाव दिया की शाम को गेटवे ऑफ इंडिया देखने चल सकते हैं, बगल मे ज़ू है,वहाँ जाया जा सकता है और भी अनगिनत सुझाव जैसे बैंडस्टैंड,जुहू चौपाटी और न जाने क्या क्या। मैंने कहा वो सब तो ठीक है उसके पहले ज़रा मुंबई की शराब चख ली जाए तो उसमे कोई बुराई है क्या? इतने दिनो बाद मिल रहे हैं तो पहले थोड़ा शराब, कबाब का कार्यक्रम कर लेते हैं, रही बात घूमने की तो वो भी कर लेंगे। मेरे इस विचार को उन्होने भी हाथों हाथ लिया और सहमति जताते हुये कहा कि मेरा ऊसुल तो तू जानता ही है, कि जब तक सूरज ढलता नहीं तब तक मैं मदिरा को हाथ भी नहीं लगाता। मैंने कहा जी ठीक है, जैसे आप कहे,ऊसुल है तो ऊसुल है। फिर मैंने कहा कि जी आपको भी मेरा एक ऊसुल पता ही है , तो वो बोले क्या? मैंने कहा जी "सूरज अस्त तो ठाकुर साहब मस्त"। फिर सहमति हुई और शाम को वृद्ध साधु (ओल्ड मोंक) की बोटल के साथ उपवास तोड़ा और कॉलेज के हॉस्टल वाले दिनो को याद करते हुये जाम टकराए।
ओल्ड मोंक पीने का सबसे बड़ा प्लस पॉइंट ये है की इससे हैंगओवर होने के चांसेज बड़े ही कम रहते हैं।इसलिए सुबह जब नींद खुली तो सब कुछ फ्रेश फ्रेश था। खैर कुछ काम था, तो सोचा पहले वो निपटा लिया जाए।स्नान ,नाश्ता सब कर के फ्लॅट से नीचे उतरा और रिक्शा ले के अंधेरी की तरफ निकल गया।रिक्शावाला समझ गया की ये भाई साहब जो हैं बाहर से आए हैं इसको घूमा लो जितना घूमाना है।9 किलोमीटर की दूरी तय करने मे उस रिक्शावाले को 14 किलोमीटर लग गए और जब उसके बाद जब मैंने उससे बोला की भाई तुझे नहीं लगता की तू कुछ ज्यादा ही गोल चक्कर लगा कर लाया है तो उसने मराठी मे कुछ बोलते हुये कहा की इतना ही होता है।खैर मैंने उससे बहस न करने मे ही भलाई समझी और उसके पैसे उसे दे कर गंतव्य की ओर रवाना हो लिया।
शाम को जब वापस आना हुआ तो मैंने सोचा की क्यू न लोकल ट्रेन का विभत्स रूप जैसा की फिल्मों मे देखा है और सुना है उसके दर्शन कर लिए जाएँ। तो मैंने अंधेरी से लोकल ट्रेन पकड़ने की सोची। अंधेरी पहुंचा तो देखता हु टिकट लेने के लिए लंबी लाईन लगी है। मैंने सोचा इसमे लगा तो टिकट शायद कल ही मिल पाएगा, तभी किसी ने बताया की टिकट के अलावा कूपन की भी व्यवस्था होती है,आप वो भी ले सकते हो,मुझे कूपन वाला ऑप्शन ज्यादा सही और समय बचने वाला लगा। झट से कूपन लिया और एक राहगीर की सहयोग से उसे इस्तेमाल करने का तरीका जान कर प्लैटफ़ार्म की ओर प्रस्थान कर दिया। प्लैटफ़ार्म तक पहुचने मे ही खासे मसक्कत का सामना करना पड़ा। कहने को तो फूट ओवर ब्रिज से प्लैटफ़ार्म पर जाने के लिए सीढ़ियों की बजाए आरामदायक स्लोप बनाए गए हैं, लेकिन उसकी चौड़ाई मे रेल्वे ने थोड़ी कंजूसी कर दी है, अगर स्लोप की चौड़ाई थोड़ी और रहती तो लोगो को थोड़ा और आराम मिल जाता। खैर किसी तरह प्लैटफ़ार्म पहुंचा तब पता चला की फिल्मों मे जो देखा है वो किसी हद तक गलत नहीं था। एक पूरा जनसैलाब नीचे ट्रेन का इंतज़ार कर रहा था।वैसे तब तक एक जानकारी और प्राप्त हुयी कि लोकल भी 2 प्रकार की होती हैं, एक स्लो लोकल जो की हर स्टेशन पे रुकते हुये जाती है और दूसरी फास्ट लोकल जो गिने चुने स्टेशन पे ही रुकती है।ये जानकारी काफी उपयोगी साबित हुयी मेरे लिए अन्यथा मैं स्लो लोकल के चक्कर मे स्लोली ही घर पहुंचता।
तब तक फास्ट लोकल के आने का पता चला तो मैं भी इसमे चढ़ने के लिए कमर कस ली। जल्दी ही ट्रेन आई और उतरने वाले यात्रियों की भीड़ ने ऐसा धक्का लगाया की मैं उनके साथ ही पीछे हो गया। खैर पहले ट्रेन मे चढ़ पाने मे तो मुझे कामयाबी नहीं मिली लेकिन मैंने भी ठान लिया की अगली लोकल मे तो फतह कर के रहूँगा।खैर अगली वाली लोकल मे किसी तरह चढ़ भी गया लेकिन जनता ने अगले स्टेशन पे अपने साथ साथ धक्का दे के मुझे भी उतार दिया।किसी तरह दुबारा चढ़ा और बोरीवली स्टेशन पहुंचा। लोकल के इस आधे घंटे के सफर ने पूरे शरीर का मसाज कर दिया।
बाकी बचे दो दिनो मे मुंबई,ठाणे के विभिन्न जगहों का भ्रमण किया और 2 दिनो के बाद पुनः मुंबई सेंट्रल से दिल्ली के लिए ट्रेन बोर्ड किया और वापस दिल्ली आ गया।दिल्ली आ कर काफी सुकून मिला और मेट्रो ट्रेन कि भीड़ ने मुंबई लोकल कि यादें ताज़ा कर दी।


Tuesday, February 19, 2013

मुंबई से मेरा पहला साक्षात्कार पार्ट 1

जैसा कि आप लोग जानते ही हैं मुझे अलग अलग जगहों को एक्सप्लोर करने का एक शौक है। इसी शौक और कुछ निजी काम के चलते पिछले दिनो मुंबई जाने का मौका भी मिला। मौका मिला था तो उसे मैंने झटकते हुये मुंबई की टिकिट्स करा ली। दिल्ली से राजधानी एक्सप्रेस की सुखद 16 घंटे की यात्रा कर के सुबह सुबह मुंबई सेंट्रल स्टेशन पहुंचा। पहली बार मुंबई गया था तो मन मे काफी सारी आशंकाए और एक प्रकार की झिझक भी भरी हुयी थी। हमारे एक परम मित्र साहब इस बात से भली भांति परिचित हैं,और मुंबई मे ही रहते हैं। मैंने उनसे गुजारिश की थी की आप स्टेशन आ जाए तो मेरे लिए बड़ा भला होगा क्यूंकी जिस मुंबई की छवि मैंने फिल्मों और न्यूज़ वगैरह मे देखी और महसूस की हैं अगर प्रथम दृष्टतया उस पर भरोसा करूंगा तो मैं तो शायद लोकल ट्रेन मे चढ़ने मे भी कामयाब न हो पाऊँ। खैर उन्हे भी इस बात का अंदेशा था इसलिए उन्होने झट ही मेरे आग्रह को स्वीकार किया और मुझसे कहा की वो स्टेशन पहुंच जाएंगे।
मेरे स्टेशन पहुँचने के बाद मित्र के आने मे थोड़ा विलम्ब था तो मैंने सोचा तब तक स्टेशन का ही मुआयना कर लिया जाए।आगे बढ़ कर स्टेशन के वेटिंग एरिया मे पहुंचा तो स्टेशन की स्थापत्य कला को देख कर आराम से अंदाज़ा लगाया जा सकता था की अंग्रेज़ो के जमाने मे बना ये स्टेशन सालों की उम्र बिता कर आज भी दृढ़ता के साथ खड़ा है।सीसीटीवी कैमरे निगरानी मे लगे थे लेकिन कितनी निगरानी कर रहे थे इसके बारे मे अंदाज़ा लगाना मुश्किल था।अभी चाय की चुस्की ली ही थी कि मित्र का फोन आ गया कि वो आ गए हैं।खैर चाय खतम कि और फिर उसके साथ हो लिया। मित्र ने बताया कि अब हमे लोकल ट्रेन कि यात्रा करके बोरीवली पहूँचना होगा और वहाँ से रिक्शा से उसके निवास स्थान जाना होगा। लोकल का सफर उतना दुखदायी नहीं था जितना मैंने उम्मीद लगाई थी। मित्र ने बताया कि अभी हम उल्टी दिशा मे जा रहे हैं इसलिए भीड़ कम है , शाम को उस ओर जाने के लिए एक जंग करना पड़ता है। हमने कहा चलो बढ़िया है ,जंग से तो बच गए , वैसे भी मैं तो शान्तिप्रिय इंसान हूँ,कहाँ जंग लड़ूँ अंजान शहर मे। बोरीवली उतर के बाहर निकले तो रिक्शा खड़ा नहीं दिखा, मैंने कहा कि आपने तो कहा था कि रिक्शा से चलना होगा तो उन्होने मेरे संदेह को दूर करते हुये बताया कि मुंबई मे ऑटो को ही रिक्शा कहा जाता है। मैंने कहा अच्छा है पर फिर रिक्शा को क्या कहते हैं तो वो हमारी बात को टाल गए।
खैर मुंबई के रिक्शा मे भ्रमण करते हुये निवास स्थान पहुच ही गए। रास्ते मे संजय गांधी नेशनल पार्क का विशाल दरवाजा भी देखने को मिला, मित्र ने बताया कि ये काफी बड़े एरिया मे फैला हुआ है और इससे सटे जो कई सारे कालोनिस हैं उनमे अक्सर ही चीते दिखाई दे जाते हैं जो जंगल से भटकते हुये अक्सर रिहायीशी इलाकों मे पहुंच जाते हैं। खैर इसमे उन बेजुबान जानवरों का कोई दोष नहीं है, हमने ही उनके जंगलों को काट काट के जो कालोनिया बना ली हैं तो इसमे उनका घर उन जानवरो से छीनता जा रहा है। एक बात बताना तो भूल ही गया कि स्टेशन से बाहर आते वक़्त मेरा मुंबई के विभिन्न उपनगरीय इलाको के साथ ईस्ट और वेस्ट जुड़े रहने का कान्सैप्ट क्लियर हो गया था।लोकल के स्टेशन के ईस्ट और वेस्ट स्थित होने से इलाकों के नाम रखे गए है।जैसे कि बोरीवली स्टेशन के ईस्ट उतरे तो वो इलाका बोरीवली ईस्ट हो गया और वेस्ट साइड उतरे तो बोरीवली वेस्ट।ये वो ज्ञान था जो मुझे बिना मुंबई गए नहीं मिल सकता था।
खैर घर पहुंचे तो सुट्टे कि तलब भी लग चुकी थी, फ्लॅट के नीचे ही दुकान थी। गया तो वहाँ पर भी 3-4  लोगो का जमघट लगा था और किसी मुद्दे पर गहन विचार चल रहा था। आवाज़ के मॉड्युलेशन से समझ गया कि ये सारे राजनीतिक विश्लेषक उत्तर प्रदेश से संबंध रखते हैं। मुंबई मे भी मायावती और मुलायम के मुद्दे पर गहन विचार विमर्ष का दौर चल रहा था, इससे पहले कि मैं भी उस विमर्श का हिस्सा बन जाता हमारे मित्र ने कहा कि सुट्टे के साथ ही कटिंग चाय कि चुस्की भी ले ली जाए। खैर मैंने और मित्र साहब ने सुट्टा जलाया और एक कटिंग चाय कि चुस्की ली और फिर फ्लॅट मे पहुच कर आराम करने के लिए आरामदायक बिस्तर कि गोद मे निंद्रा की छाँव मे चला गया। 
                                                                    ॥क्रमशः॥