Tuesday, February 19, 2013

मुंबई से मेरा पहला साक्षात्कार पार्ट 1

जैसा कि आप लोग जानते ही हैं मुझे अलग अलग जगहों को एक्सप्लोर करने का एक शौक है। इसी शौक और कुछ निजी काम के चलते पिछले दिनो मुंबई जाने का मौका भी मिला। मौका मिला था तो उसे मैंने झटकते हुये मुंबई की टिकिट्स करा ली। दिल्ली से राजधानी एक्सप्रेस की सुखद 16 घंटे की यात्रा कर के सुबह सुबह मुंबई सेंट्रल स्टेशन पहुंचा। पहली बार मुंबई गया था तो मन मे काफी सारी आशंकाए और एक प्रकार की झिझक भी भरी हुयी थी। हमारे एक परम मित्र साहब इस बात से भली भांति परिचित हैं,और मुंबई मे ही रहते हैं। मैंने उनसे गुजारिश की थी की आप स्टेशन आ जाए तो मेरे लिए बड़ा भला होगा क्यूंकी जिस मुंबई की छवि मैंने फिल्मों और न्यूज़ वगैरह मे देखी और महसूस की हैं अगर प्रथम दृष्टतया उस पर भरोसा करूंगा तो मैं तो शायद लोकल ट्रेन मे चढ़ने मे भी कामयाब न हो पाऊँ। खैर उन्हे भी इस बात का अंदेशा था इसलिए उन्होने झट ही मेरे आग्रह को स्वीकार किया और मुझसे कहा की वो स्टेशन पहुंच जाएंगे।
मेरे स्टेशन पहुँचने के बाद मित्र के आने मे थोड़ा विलम्ब था तो मैंने सोचा तब तक स्टेशन का ही मुआयना कर लिया जाए।आगे बढ़ कर स्टेशन के वेटिंग एरिया मे पहुंचा तो स्टेशन की स्थापत्य कला को देख कर आराम से अंदाज़ा लगाया जा सकता था की अंग्रेज़ो के जमाने मे बना ये स्टेशन सालों की उम्र बिता कर आज भी दृढ़ता के साथ खड़ा है।सीसीटीवी कैमरे निगरानी मे लगे थे लेकिन कितनी निगरानी कर रहे थे इसके बारे मे अंदाज़ा लगाना मुश्किल था।अभी चाय की चुस्की ली ही थी कि मित्र का फोन आ गया कि वो आ गए हैं।खैर चाय खतम कि और फिर उसके साथ हो लिया। मित्र ने बताया कि अब हमे लोकल ट्रेन कि यात्रा करके बोरीवली पहूँचना होगा और वहाँ से रिक्शा से उसके निवास स्थान जाना होगा। लोकल का सफर उतना दुखदायी नहीं था जितना मैंने उम्मीद लगाई थी। मित्र ने बताया कि अभी हम उल्टी दिशा मे जा रहे हैं इसलिए भीड़ कम है , शाम को उस ओर जाने के लिए एक जंग करना पड़ता है। हमने कहा चलो बढ़िया है ,जंग से तो बच गए , वैसे भी मैं तो शान्तिप्रिय इंसान हूँ,कहाँ जंग लड़ूँ अंजान शहर मे। बोरीवली उतर के बाहर निकले तो रिक्शा खड़ा नहीं दिखा, मैंने कहा कि आपने तो कहा था कि रिक्शा से चलना होगा तो उन्होने मेरे संदेह को दूर करते हुये बताया कि मुंबई मे ऑटो को ही रिक्शा कहा जाता है। मैंने कहा अच्छा है पर फिर रिक्शा को क्या कहते हैं तो वो हमारी बात को टाल गए।
खैर मुंबई के रिक्शा मे भ्रमण करते हुये निवास स्थान पहुच ही गए। रास्ते मे संजय गांधी नेशनल पार्क का विशाल दरवाजा भी देखने को मिला, मित्र ने बताया कि ये काफी बड़े एरिया मे फैला हुआ है और इससे सटे जो कई सारे कालोनिस हैं उनमे अक्सर ही चीते दिखाई दे जाते हैं जो जंगल से भटकते हुये अक्सर रिहायीशी इलाकों मे पहुंच जाते हैं। खैर इसमे उन बेजुबान जानवरों का कोई दोष नहीं है, हमने ही उनके जंगलों को काट काट के जो कालोनिया बना ली हैं तो इसमे उनका घर उन जानवरो से छीनता जा रहा है। एक बात बताना तो भूल ही गया कि स्टेशन से बाहर आते वक़्त मेरा मुंबई के विभिन्न उपनगरीय इलाको के साथ ईस्ट और वेस्ट जुड़े रहने का कान्सैप्ट क्लियर हो गया था।लोकल के स्टेशन के ईस्ट और वेस्ट स्थित होने से इलाकों के नाम रखे गए है।जैसे कि बोरीवली स्टेशन के ईस्ट उतरे तो वो इलाका बोरीवली ईस्ट हो गया और वेस्ट साइड उतरे तो बोरीवली वेस्ट।ये वो ज्ञान था जो मुझे बिना मुंबई गए नहीं मिल सकता था।
खैर घर पहुंचे तो सुट्टे कि तलब भी लग चुकी थी, फ्लॅट के नीचे ही दुकान थी। गया तो वहाँ पर भी 3-4  लोगो का जमघट लगा था और किसी मुद्दे पर गहन विचार चल रहा था। आवाज़ के मॉड्युलेशन से समझ गया कि ये सारे राजनीतिक विश्लेषक उत्तर प्रदेश से संबंध रखते हैं। मुंबई मे भी मायावती और मुलायम के मुद्दे पर गहन विचार विमर्ष का दौर चल रहा था, इससे पहले कि मैं भी उस विमर्श का हिस्सा बन जाता हमारे मित्र ने कहा कि सुट्टे के साथ ही कटिंग चाय कि चुस्की भी ले ली जाए। खैर मैंने और मित्र साहब ने सुट्टा जलाया और एक कटिंग चाय कि चुस्की ली और फिर फ्लॅट मे पहुच कर आराम करने के लिए आरामदायक बिस्तर कि गोद मे निंद्रा की छाँव मे चला गया। 
                                                                    ॥क्रमशः॥




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