आते जाते , उठते बैठते अक्सर ही किसी न किसी को सेकुलरिज़्म पर ज्ञान देते सुनता हूँ। आज से ही नहीं, जब से होश संभाला हैं तब से इस सेकुलरिज़्म की परिभाषा गढ़ते हर रोज़ कोई न कोई सामने आ ही जाता है और फिर लगता है बिन मांगे अपना ज्ञान बाँचने। ऐसा लगता है ये सेकुलरिज़्म ही देश के सभी समस्याओं का एकलौता समाधान है। गरीबी कैसे हटेगी ये सेकुलरिज़्म ही बताएगा। देश के बेरोजगारों के लिए रोजगार की व्यवस्था ये सेकुलरिज़्म ही करेगा। किसी को दिन मे दो जून की रोटी मिले न मिले, सेकुलरिज़्म से ही उसके भूख की ज्वाला को मिटाया जा सकता है।
वैसे सेकुलरिज़्म का शाब्दिक अर्थ धर्मनिरपेक्षता होता है, अर्थात विभिन्न धर्मों एवं पंथों के बीच बिना किसी प्रकार के भेद भाव का व्यवहार। लेकिन भारत के परिपेक्ष्य मे भारतीय राजनीतिज्ञों एवं मीडिया के एक खास वर्ग ने इस सेकुलरिज़्म शब्द की अपनी ही व्याख्या करी हुयी है और इसी को रटते हुये इनके दिन गुज़र रहे हैं। इनके अनुसार एक खास समुदाय के ऊपर ही इस सेकुलरिज़्म का सारा बोझ है और उसी समुदाय को इस सेकुलरिज़्म की गाड़ी को अकेले खीचना है। दूसरे किसी समुदाय का कोई भी आचरण सेकुलर हो या न हो उसकी आवश्यकता ये जरूरी नहीं समझते। इस सेकुलरिज़्म के नाम पर बहुतों की दुकान चल रही है और इनकी कोशिश है की ये ऐसी ही चलती रहे। पर ये कब तक चलेगी ये देखने की बात है।
अभी हाल मे पीके फिल्म मे हिन्दू धर्म की कई मान्यताओं के ऊपर प्रहार हुआ जिसे ये खास सेकुलर लोग रचनात्मकता के दृष्टिकोण से देखते हैं लेकिन अगर यही रचनात्मकता का उपयोग किसी और संप्रदाय पर होता है तो सेकुलरिज़्म की दुहाई देते हुये यही लोग उसे धर्म पर प्रहार और धार्मिक भावनाए आहत होता हुआ देखते हैं।
एक तरफा सेकुलरिज़्म की एक और ताज़ा मिसाल हाल ही मे जम्मू कश्मीर विधान सभा चुनाव के परिनामों के बाद देखने को मिली जब भाजपा ने एक हिन्दू मुख्यमंत्री की बात करी तो तमाम राष्ट्रीय और कश्मीर के क्षेत्रीय दलों ने इसे कश्मीरियत पर हमला मानते हुये इसे खारिज कर दिया और दलील दी की हिन्दू मुख्यमंत्री वहां की बहुसंख्यक समुदाय से ताल्लुक नहीं रखता इसलिए ऐसी कोई भी संभावना को साकार होते वो नहीं देखना चाहते। अपनी सेकुलरिज़्म की परिभाषा इन दलों ने एक समुदाय विशेष के तुष्टीकरण के लिए बना रखी है। लेकिन क्या सेकुलरिज़्म का सारा दारोमदार एकतरफा होना चाहिये क्या? मेरा मानना है की ये एकतरफा सेकुलरिज़्म अत्यंत ही खतरनाक है और ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती है। लंबे दौर मे ऐसी एकतरफा सेकुलरिज़्म कभी कारगर सिद्ध नहीं हो सकती और सभी पक्षों को इस मुद्दे पर गंभीरता से सोचने और विचार करने की ज़रूरत है।
चित्र - साभार श्री मनोज कुरील
वैसे सेकुलरिज़्म का शाब्दिक अर्थ धर्मनिरपेक्षता होता है, अर्थात विभिन्न धर्मों एवं पंथों के बीच बिना किसी प्रकार के भेद भाव का व्यवहार। लेकिन भारत के परिपेक्ष्य मे भारतीय राजनीतिज्ञों एवं मीडिया के एक खास वर्ग ने इस सेकुलरिज़्म शब्द की अपनी ही व्याख्या करी हुयी है और इसी को रटते हुये इनके दिन गुज़र रहे हैं। इनके अनुसार एक खास समुदाय के ऊपर ही इस सेकुलरिज़्म का सारा बोझ है और उसी समुदाय को इस सेकुलरिज़्म की गाड़ी को अकेले खीचना है। दूसरे किसी समुदाय का कोई भी आचरण सेकुलर हो या न हो उसकी आवश्यकता ये जरूरी नहीं समझते। इस सेकुलरिज़्म के नाम पर बहुतों की दुकान चल रही है और इनकी कोशिश है की ये ऐसी ही चलती रहे। पर ये कब तक चलेगी ये देखने की बात है।
अभी हाल मे पीके फिल्म मे हिन्दू धर्म की कई मान्यताओं के ऊपर प्रहार हुआ जिसे ये खास सेकुलर लोग रचनात्मकता के दृष्टिकोण से देखते हैं लेकिन अगर यही रचनात्मकता का उपयोग किसी और संप्रदाय पर होता है तो सेकुलरिज़्म की दुहाई देते हुये यही लोग उसे धर्म पर प्रहार और धार्मिक भावनाए आहत होता हुआ देखते हैं।
एक तरफा सेकुलरिज़्म की एक और ताज़ा मिसाल हाल ही मे जम्मू कश्मीर विधान सभा चुनाव के परिनामों के बाद देखने को मिली जब भाजपा ने एक हिन्दू मुख्यमंत्री की बात करी तो तमाम राष्ट्रीय और कश्मीर के क्षेत्रीय दलों ने इसे कश्मीरियत पर हमला मानते हुये इसे खारिज कर दिया और दलील दी की हिन्दू मुख्यमंत्री वहां की बहुसंख्यक समुदाय से ताल्लुक नहीं रखता इसलिए ऐसी कोई भी संभावना को साकार होते वो नहीं देखना चाहते। अपनी सेकुलरिज़्म की परिभाषा इन दलों ने एक समुदाय विशेष के तुष्टीकरण के लिए बना रखी है। लेकिन क्या सेकुलरिज़्म का सारा दारोमदार एकतरफा होना चाहिये क्या? मेरा मानना है की ये एकतरफा सेकुलरिज़्म अत्यंत ही खतरनाक है और ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती है। लंबे दौर मे ऐसी एकतरफा सेकुलरिज़्म कभी कारगर सिद्ध नहीं हो सकती और सभी पक्षों को इस मुद्दे पर गंभीरता से सोचने और विचार करने की ज़रूरत है।
चित्र - साभार श्री मनोज कुरील
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