Friday, December 30, 2016

यादव परी-war या भविष्य के लिए हो रहे तैयार

राजनीती असल में रणनीतियों की लड़ाई है। सभी अपनी अपनी रणनीतियों के दम पर जीतने का दम्भ भरते हैं, लेकिन जीत किसी एक की ही होती है जिसकी रणनीति तात्कालिक, सामाजिक व्यावहारिक और आर्थिक परिस्थितियों पर खरा उतरती है। उत्तर प्रदेश के राजनीतिक घमासान  के इस चरण में सत्तारूढ़ यादव परिवार के बीच तथाकथित राजनीतिक दंगल का क्या परिणाम  होगा वो तो समय के साथ साबित हो ही जायेगा लेकिन यहाँ ये जानना काफी जरुरी है कि क्या ये दंगल वैसा ही है जैसा टेलीविज़न स्क्रीन और अखबार के पन्नों पर दिख रहा है या परदे के पीछे कोई और खेल चल रहा है।
मेरी तरह जो लोग उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखते हैं या उत्तर प्रदेश की राजनीती पर पैनी नज़र रखते हैं वो ये अच्छी तरह से जानते हैं की समाजवादी पार्टी की जमीनी सच्चाई  क्या है और जनता के बीच इसकी छवि गुंडे बदमाशों , भ्रष्टाचारियों और अतिजातिवादी पार्टी की है। जब जब प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार आयी है गुंडई, भ्रष्टाचार, महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध, सरकारी नौकरियों एवं सरकारी ठेकों में जाति विशेष का बोलबाला और लचर कानून व्यवस्था सौगात में ले कर आयी है। 2012 में अखिलेश यादव के नेतृत्व में बनी समाजवादी सरकार भी इन सारे मानकों पर पिछले साढ़े चार सालों में उम्मीद पर बिलकुल खरी उतरी और असामाजिक तत्वों ने वो सारे खेल खेले जिसकी उम्मीद इस सरकार से थी और मुख्यमंत्री जी ने रणनीतिक रूप से अपनी मौन सहमति उनको दे रखी थी। ऐसी कोई सरकारी भर्ती नहीं गुज़री पिछले साढ़े चार सालों में जिसमे अनियमितता और भ्रष्टाचार न हुआ हो। जाती विशेष के अभ्यर्थियों का सरकारी नौकरियों  में बोलबाला , सरकारी ठेकों में सत्ता समर्थित अपराधियों की धौंस , वो सब हुआ जो समाजवादी पार्टी की पहचान रही है।  फिर ऐसा क्या हुआ की सत्ता में साढ़े चार साल इन्ही सबों के बीच अपना हिस्सा बखूबी पाते रहे मुख्यमंत्री जी को दिव्य ज्ञान बोध हुआ और आनन फानन में कई मंत्रियों को उनके पद से ये कह के हटा दिया गया की उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं। और तो और शिवपाल यादव के मंत्रालयों में भी कमी की गयी जिससे खिन्न हो कर उन्होंने मंत्री पद से इस्तीफ़ा देना ज्यादा उचित समझा।
तो पिछले साढ़े चार सालों में होते रहे पापों का ज्ञान बोध आखिरी के 6 महीने में ही क्यों हुआ। इसके पीछे भी कारण है और वो कारण ये है कि 2016 के पूर्वार्द्ध में अखिलेश यादव ने एक सर्वे कराया जिसमे ये संकेत मिले की जनता के बीच उनकी छवि समाजवादी पार्टी के गुंडई वाली छवि से इतर नहीं है और आने वाले चुनावों में उनके जीतने की संभावनाएं क्षीण हैं। अगर चुनावों में बेहतर प्रदर्शन करना है तो इस छवि से निजात पाना ही होगा और उसी समय ये पटकथा लिखी गयी की  गुंडई वाली छवि से खुद को अलग करना होगा लेकिन पार्टी के आत्मा तक घुस चुके इस छवि से निजात पाना इतना आसान भी नहीं था।  कुछ विश्वस्त नेताओं और इमेज मेकओवर कंपनी के साथ गहन मंथन हुआ और निष्कर्ष ये निकला की धीरे धीरे अखिलेश यादव को स्वच्छ बेदाग़ और विकासवादी छवि देनी होगी। लेकिन सिर्फ इतने से काम नहीं बनता तो इस छवि के साथ कुछ संवेदनाएं और कुछ तकरारों का मिश्रण भी ज़रूरी था ताकि जनता के बीच सहानुभूति का छौंक भी मिले। मुलायम को इस पुरे ड्रामे के पटकथा में साथ लिया गया और उत्तराधिकार की पूरी पटकथा लिखी गयी। विरासत में किसको क्या देना है इस पर ध्यानपूर्वक विचार करने के बाद मुलायम को केंद्र में रखते हुए इस पटकथा का निष्पादन करने पर सहमति हुई।
विमर्शपूर्वक और सोच समझ काफी एहतियात से ये निर्णय हुआ की मुलायम के समाजवाद के उत्तराधिकार में से गुंडई और भ्रष्टाचार वाली छवि को सावधानीपूर्वक पृथक कर शिवपाल के खेमे में जाने दिया जाए और बाकि बचे उत्तराधिकार में थोड़े स्वच्छ और बेदाग़ छवि के साथ विकासवादी सोच को मिश्रित कर अखिलेश को भविष्य की एक सुदृढ़ नींव दी जाये।  ड्रामा शुरू हुआ अक्टूबर में ही लेकिन प्रधानमंत्री जी द्वारा विमुद्रीकरण के प्रस्ताव के कारण लगभग एक महीने तक ड्रामे में अल्प विराम लगा रहा जो अब पुनः अपने अंतिम मोड़ पर आ चूका है और जल्द ही कुछ निर्णायक रंग लेगा।


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