इस शीर्षक पर लिखने के बारे में सोच तो काफी अरसे से रहा था लेकिन दिन आज का चुना क्यूंकि आज का दिन ही कश्मीर की इतिहास का वो कला दिन है जब कश्यप ऋषि की तपोभूमि कश्मीर की धरती से स्वयं कश्मीरी पंडितों को ही विस्थापित होने के लिए मजबूर होना पड़ा था। वो कश्मीरी पंडित जो सैकड़ों सालों से वहां रह रहे थे, जो उनके लिए सिर्फ घर नहीं बल्कि जन्नत था। एक पूरी की पूरी पीढ़ी जो अपना फूल सा बचपन भी जी नहीं पाइ थी और उन्हें राहत शिविरों , विस्थापन केन्द्रों में जीवन व्यतीत करने के लिए विवश होना पड़ा। ये पूरी पीढ़ी अपना बचपन तो नहीं ही जी पाई और समय से पहले ही इन्होने वक़्त के वो सारे थपेड़े झेले, जिसने इन्हें अचानक से ही मानसिक रूप से व्यस्क बना दिया। आज भी लाखों परिवार राहत शिविरों में अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं और इन्ही रहत शिविरों में ही जीवन व्यतीत करते करते करते अपने घर जाने की आस में ही हज़ारों लोग दुनिया से रुख्शत कर चुके हैं। कभी ये भारत के धनवानों में मानी जाने वाली पूरी कौम, आज जिल्लत भरी ज़िन्दगी जीने को मजबूर हैं।
मेरी धुंधली यादों में कही थोड़ी सी याद बाकी है , कभी कभी कुछ महिलाएं छोटे छोटे बच्चों के साथ हमारे शहर में हमारे घरो में आती थी और अपनी व्यथा बताती थी। उनकी व्यथा सुनके महिलाओ की आँखे भर आती थी और जिससे जितना हो सकता था वो अपनी हैसियत के हिसाब से उनकी मदद करता था। उनके बात करने के लहजे और पहनावे को देख कर यही सोचा करता था की ये क्यों ऐसे जीने पे मजबूर हैं। उस समय उतना पता नहीं चलता था, लेकिन जैसे जैसे बड़ा हुआ कश्मीरी पंडितों के बारे में पढने और जानने का मौका मिला तो खुद पर आत्मग्लानी हुई कि कैसे हमारे ही देश के पूतों को अपने घर से भाग कर विस्थापितों की तरह रहने को विवश होना पड़ रहा है। ये हमारे भारत के हजारों वर्षों के स्वर्णिम इतिहास में निःसंकोच एक काला धब्बा ही है।
आखिर क्यूँ हमारी सरकार इस पूरी कौम को इनके हाल पर जीने के लिए छोड़ चुकी है। इनकी सहायता के नाम पर कुछ राहत और विस्थापन शिविर बना दिए गए हैं जिनकी हालत भी अन्य सरकारी योजनाओ के जैसी ही है। कश्मीरी पंडितो की ये हालात आज ऐसे हैं उसका सबसे बड़ा कारण ये है की इनकी संख्या बहुत कम है। ये किसी भी राजनीतिक दल के लिए एकमुश्त वोट बैंक नहीं हैं। ये अलग अलग जगहों पर रह रहे हैं इसलिए इनकी संख्या इतनी नहीं है की ये कि ये चुनावों में एक सार्थक वोट बैंक साबित हो पायें, इसलिए किसी भी राजनीतिक दल ने इनकी समस्या को लेकर कभी कोई इमानदार प्रयास शायद ही किया। इतनी सारी यातनाएं और यहाँ तक की देश के सरकार द्वारा भी अपने हाल पर छोड़ दिए जाने के बावजूद इस कौम में समय के साथ साथ आगे बढ़ना सीख लिया है। समय की विपरीत धाराओं में भी आगे बढ़ते हुए आज ये कौम फिर से पुराने स्वर्णिम दिनों को पाने की आस में आगे बढ़ रहे हैं। लेकिन न ही केंद्र की सरकार ने और न ही जम्मू कश्मीर की राज्य सरकार ने ही इनको सार्थक रूप से मदद की, इस बात की कसक तो इन लोगों के मन में अवश्य ही होगी। यही उम्मीद करूँगा कि जल्दी ही ये मेरे भाई बहन फिर से अपने घर कश्मीर को लौट सके और फिर से अपनी ऐतिहासिक स्वर्णिम ऊँचाइयों को छू सके।
मेरी धुंधली यादों में कही थोड़ी सी याद बाकी है , कभी कभी कुछ महिलाएं छोटे छोटे बच्चों के साथ हमारे शहर में हमारे घरो में आती थी और अपनी व्यथा बताती थी। उनकी व्यथा सुनके महिलाओ की आँखे भर आती थी और जिससे जितना हो सकता था वो अपनी हैसियत के हिसाब से उनकी मदद करता था। उनके बात करने के लहजे और पहनावे को देख कर यही सोचा करता था की ये क्यों ऐसे जीने पे मजबूर हैं। उस समय उतना पता नहीं चलता था, लेकिन जैसे जैसे बड़ा हुआ कश्मीरी पंडितों के बारे में पढने और जानने का मौका मिला तो खुद पर आत्मग्लानी हुई कि कैसे हमारे ही देश के पूतों को अपने घर से भाग कर विस्थापितों की तरह रहने को विवश होना पड़ रहा है। ये हमारे भारत के हजारों वर्षों के स्वर्णिम इतिहास में निःसंकोच एक काला धब्बा ही है।
आखिर क्यूँ हमारी सरकार इस पूरी कौम को इनके हाल पर जीने के लिए छोड़ चुकी है। इनकी सहायता के नाम पर कुछ राहत और विस्थापन शिविर बना दिए गए हैं जिनकी हालत भी अन्य सरकारी योजनाओ के जैसी ही है। कश्मीरी पंडितो की ये हालात आज ऐसे हैं उसका सबसे बड़ा कारण ये है की इनकी संख्या बहुत कम है। ये किसी भी राजनीतिक दल के लिए एकमुश्त वोट बैंक नहीं हैं। ये अलग अलग जगहों पर रह रहे हैं इसलिए इनकी संख्या इतनी नहीं है की ये कि ये चुनावों में एक सार्थक वोट बैंक साबित हो पायें, इसलिए किसी भी राजनीतिक दल ने इनकी समस्या को लेकर कभी कोई इमानदार प्रयास शायद ही किया। इतनी सारी यातनाएं और यहाँ तक की देश के सरकार द्वारा भी अपने हाल पर छोड़ दिए जाने के बावजूद इस कौम में समय के साथ साथ आगे बढ़ना सीख लिया है। समय की विपरीत धाराओं में भी आगे बढ़ते हुए आज ये कौम फिर से पुराने स्वर्णिम दिनों को पाने की आस में आगे बढ़ रहे हैं। लेकिन न ही केंद्र की सरकार ने और न ही जम्मू कश्मीर की राज्य सरकार ने ही इनको सार्थक रूप से मदद की, इस बात की कसक तो इन लोगों के मन में अवश्य ही होगी। यही उम्मीद करूँगा कि जल्दी ही ये मेरे भाई बहन फिर से अपने घर कश्मीर को लौट सके और फिर से अपनी ऐतिहासिक स्वर्णिम ऊँचाइयों को छू सके।
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